मानव संसाधन प्रबंधन के कार्य | Functions of Human Resource Management
मानव संसाधन प्रबंध के प्रबन्धकीय कार्य (Management Functions of Human Resource Management):
प्रबन्ध एक बहुअर्थी शब्द है जिसके अन्तर्गत तीन प्रमुख कार्य सम्मिलित हैं:
(i) व्यवसाय का प्रबन्ध (Managing a Business),
(ii) प्रबन्धकों का प्रबन्ध (Managing Managers) तथा
(iii) कार्य तथा कार्यकर्त्ताओं का प्रबन्ध (Managing the Work and the Workers) ।
इसमें से अन्तिम दो कार्य सेविवर्गीय प्रबन्ध से सम्बन्धित हैं । मूलत: प्रबन्ध का अर्थ उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा भौतिक एवं मानवीय संसाधनों का उपयोग निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है अर्थात् उस प्रक्रिया के अन्तर्गत उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु नियोजन, संगठन, नियन्त्रण व समन्वय के कार्य सम्मिलित किये जाते हैं ।
(1) नियोजन (Planning):
नियोजन एक आधारभूत एवं निरन्तर चलने वाला प्रबन्धकीय कार्य है क्योंकि इसके द्वारा ही पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कार्य पथ (Work Path) का चयन किया जाता है । नियोजन यह स्पष्ट करता है कि क्या करना है, कब करना है क्यों करना है और कौन व्यक्ति किस कार्य को करेगा ।
यह एक जटिल एवं कठिन कार्य है क्योंकि सामान्यत: योजनाएँ एक अनिश्चित एवं गतिशील वातावरण में तैयार की जाती हैं और लागू की जाती हैं जिनका ठीक प्रकार से पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता ।
अत: नियोजन में दो आधारभूत तत्व सम्मिलित हैं:
(i) शोध एवं
(ii) पूर्वानुमान ।
ये दोनों तत्व परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं क्योंकि पूर्वानुमान तभी सम्भव है जबकि शोध कार्य पूर्ण कर लिया गया हो और निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक दशाएँ उपलब्ध हों । नियोजन के लिए प्रचलित मजदूरी की दरें श्रम-बाजार श्रम-संघों की शक्ति, प्रचलित सेविवर्गीय नीतियों तथा कार्यक्रमों, आदि की जानकारी होना आवश्यक है ।मानव संसाधन के पूर्वानुमान के लिए प्रबन्धक को उत्पादन में अथवा सामाजिक माँग परिवर्तन और उनमें समन्वय स्थापित करने हेतु आवश्यक ज्ञान होना चाहिए अन्यथा श्रम की पूर्ति आवश्यकता अधिक होने पर या उसके आवश्यकता से कम होने पर (दोनों ही दशाओं में) हानि होने की संभावना रहती है ।
वस्तुत: नियोजन अथवा नीति निर्धारण कार्य, आरम्भ में ही कर लिया जाना चाहिए जिससे कि संभावित समस्याओं और घटनाओं का पूर्वानुमान लगाया जा सके और जिससे होने वाली हानियों को कम किया जा सके और यदि संभव हो तो उनसे पूर्णत: मुक्ति पायी जा सके ।
(2) संगठन (Organisation):
एक कार्य-प्रणाली निश्चित होने के पश्चात् लक्ष्यों की प्राप्ति केवल उचित संगठन द्वारा ही संभव है । यह तभी संभव है जबकि कार्य कर्मचारियों उत्पादन विधियों तथा भौतिक साधनों के बीच क्रियात्मक सम्बन्ध स्थापित किया जा चुका हो ।
संगठन तथा प्रबन्ध में घनिष्ठ सम्बन्ध है क्योंकि प्रबन्धक कार्यों के करने के लिए विभिन्न कर्मचारियों को उनके पद के अनुरूप अधिकार हस्तान्तरित करते हैं और उन्हें कार्य विशेष के लिए उत्तरदायी ठहराते हैं । प्रत्येक कर्मचारी अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए उद्देश्यों की प्राप्ति में योगदान देता है ।
(3) निर्देशन (Direction):
उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु कार्यकर्त्ताओं को प्रोत्साहित करना व उन्हें गति प्रदान करना अत्यन्त आवश्यक है । निर्देशन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रबन्धक कर्मचारियों को उचित नेतृत्व एवं अभिप्रेरण प्रदान कर अनुकूलन संगठनात्मक व्यवहार प्राप्त करते हैं जो कि अधिकतम उत्पादन का आधार है ।
(4) समन्वय (Co-Ordination):
समन्वय द्वारा विभिन्न विभागों के कार्य में सन्तुलन स्थापित किया जाता है जिससे संगठन में एकता बनी रहे और उद्देश्य प्राप्त किये जा सकें । यह कार्य सभी स्तर पर किया जाता है ।
इस हेतु सेविवर्गीय विभाग विकास सम्बन्धी क्रियाओं सेविवर्गीय नीतियों तथा अन्य कार्यक्रमों में समन्वय स्थापित करने का कार्य करता है जैसे सुरक्षात्मक कार्य, कर्मचारियों को लाभान्वित करने का कार्य, कार्य-मूल्यांकन कार्य, प्रशिक्षण एवं विकास तथा सन्देशवाहन कार्य, आदि ।
(5) नियन्त्रण (Controlling):
नियन्त्रण यह प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत इस तथ्य का सत्यापन किया जाता है कि नियोजित एवं स्थापित कार्यक्रम स्वीकृत सिद्धान्तों एवं दिये गये निर्देशानुसार कार्य हो रहा है अथवा नहीं, त्रुटियाँ कहाँ उत्पन्न होती हैं व कैसे इन्हें दूर किया जा सकता है ।
निर्वचन, नियन्त्रण तथा पुन:मूल्यांकन द्वारा ही सेविवर्गीय विभाग उचित जानकारी प्राप्त कर सकता है । नियन्त्रण हेतु सेविवर्गीय प्रबन्ध के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों का निरीक्षण, श्रम-बदली विवरणों की जाँच-पड़ताल एवं निर्वाचन, नैतिक सर्वेक्षण कार्य करना, विभाजन, साक्षात्कार, नए कर्मचारियों का कुछ कालान्तर में साक्षात्कार आदि उपकरण के रूप में कार्य करते हैं ।
मानव संसाधन प्रबंध के क्रियात्मक कार्य (Operative Functions of Human Resource Management):
क्रियात्मक कार्य के अन्तर्गत उन कार्यों का समावेश किया जाता है जो कर्मचारियों की भर्ती और उनके विकास से लेकर क्षतिपूर्ति तथा उनके कार्य स्थापन से सम्बन्धित है ।
इन कार्यों के अन्तर्गत निम्न प्रमुख कार्य सम्मिलित किये जाते हैं:
(1) कर्मचारियों की प्राप्ति (Procurement):
कर्मचारियों की प्राप्ति का अर्थ संगठन के लिए पर्याप्त मात्रा में योग्य कर्मचारी प्राप्त करने से है, जिससे संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति सरलता से की जा सके । इसके अन्तर्गत मानव शक्ति का अनुमान कर्मचारियों की भर्ती चयन तथा स्थापन आदि कार्य सम्मिलित किये जाते हैं ।
उपर्युक्त कार्यों के लिए आवश्यक आवेदन पत्र तैयार करना मनोवैज्ञानिक परीक्षणों की व्यवस्था करना साक्षात्कार एवं लिखित परीक्षा का आयोजन करना, स्थानान्तरण, कार्य-मुक्ति, कार्य-पृथकता आदि से सम्बन्धित कार्य हैं ।
(2) विकास कार्य (Development Functions):
कर्मचारी की कार्यकुशलता तथा निपुणता में वृद्धि करने के लिए सामान्यत: प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं जिससे कि कम समय में अधिक उत्पादन किया जा सके ।
प्रशिक्षण कार्यक्रमों के लिए योजनाएँ बनाना निर्धारित कार्यक्रमों को लागू करना विचार गोष्ठियाँ आयोजित करना तथा शैक्षणिक व कार्य सम्बन्धी प्रशिक्षण की सुविधाएँ प्रदान करना आदि ऐसे कार्य हैं जिससे कर्मचारियों का विकास किया जा सकता है ।
(3) क्षतिपूर्ति कार्य (Compensating Functions):
इस कार्य में कर्मचारियों को कार्य के अनुसार सम्मान एवं उचित रूप से पुरस्कृत किया जाता है । अत: इसके अन्तर्गत विभिन्न मजदूरी-सर्वेक्षण, कार्य-विभाजन करना, कार्य-विश्लेषण, योग्यतानुसार वर्गीकरण, मजदूरी दर निर्धारण, मजदूरी योजनाएँ तथा नीतियाँ स्पष्ट करना, भुगतान की विधियाँ निश्चित करना, अधिक कार्य के लिए पुरस्कार का प्रावधान, लाभ विभाजन योजनाएँ बनाना, आदि कार्य सम्मिलित किये जाते हैं ।
(4) श्रमिकों को संगठन में बनाये रखने के लिए कार्य करना (Maintenance Functions):
इन कार्यों के अन्तर्गत कर्मचारियों के लिए कार्य की उत्तम भौतिक दशाएँ बनाये रखने का कार्य आता है, जैसे- स्वास्थ्य सम्बन्धी योजनाएँ बनाना, सुरक्षात्मक उपाय तथा सेवा कार्यक्रमों का निर्धारण करना ।
फिलिप्पो (Fippo) के अनुसार- ”समस्त क्रियाओं का उद्देश्य संगठन के मूलभूत उद्देश्यों की प्राप्त करना है । इस कारण अन्य सभी प्रबन्ध की भाँति सेविवर्गीय प्रबन्ध का प्रारम्भ बिन्दु भी कर्मचारियों के कार्यकलाप का निर्धारण करना तथा उसके निहित, मूल एवं गौण उद्देश्यों की पूर्ति के प्रयास करना है । सेविवर्गीय विभाग पर व्यय की गयी समस्त राशि का औचित्य तभी सिद्ध हो सकता है जब यह विभाग संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल हो ।”
संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि सेविवर्गीय प्रबन्ध कार्य के दोनों पहलुओं में सन्तुलन बनाये रखकर ही सफल हो सकता है । यदि वह केवल क्रियात्मक पक्ष को देखता रहे तथा प्रबन्धकीय पक्ष की उपेक्षा करें तो समुचित नियन्त्रण के अभाव में संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकती । दूसरी ओर यदि वह केवल प्रबन्धकीय पक्ष को ध्यान में रखें तो कर्मचारी असन्तुष्ट हो सकते हैं जिससे संगठन के उद्देश्यों को क्षति पहुँच सकती है ।
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